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सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश 

यज्ञ करने की विधि

यज्ञ की विधि
* ध्यान दें - यज्ञ से संबंधित विचार-विमर्श के लिए प्रश्न पूछने की सुविधा अंत में उपलब्ध है ।

 भूमिका

सामान्यतः यज्ञ / हवन करने हेतु; कुंड, आग, आहुति, पंडित, प्रांगण, सामग्री आदि को यज्ञ संपन्न करने की विधि का हिस्सा जाना गया है किन्तु जीवन के विशाल उदेश्य, दीर्घ सफलता एवं शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु भगवान द्वारा भागवतम पुराण में बतायी गयी यज्ञ / हवन करने की विधि की प्रक्रिया का वर्णन इस पेज में किया गया है। 

यज्ञ / हवन करने की इस विधि का उपयोग घर बैठे अपनेआप यज्ञ संपन्न करने में बड़ी ही सरलता से तथा बिना किसी संसाधन की मदद से भी किया जा सकता है।
 यज्ञ / हवन करने की विधि

मन स्वीकृति तथा अस्वीकृति की तरंगों से सदैव विक्षुब्ध होता रहता है अतएव इंद्रियों के समस्त कार्यकलाप मन को अर्पित कर देने चाहिए और मन को अपने शब्दों में अर्पित कर देना चाहिए। फिर इन शब्दों को समस्त वर्णों के समूह में अर्पित कर देना चाहिए जिसे ॐकार के संक्षिप्त रूप को अर्पित कर देना चाहिए । ॐकार को बिंदु में बिंदु को नाद में और उस नाद को प्राण में समर्पित करना चाहिए जो शेष रूप में जीव बचे उसे परम ब्रह्म में स्थापित करें यही यज्ञ की विधि है​।
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जिंदगी से जुड़े सारे सवालों, शंकाओं तथा इंसानों के जीवन के सारे पहलुओं का आध्यात्मिक ज्ञान यहाँ उपलब्ध है।
जीवन का परिचय
मन सदा स्वीकृति तथा अस्वीकृति द्वारा विक्षुब्ध होता है जिसकी तुलना निरंतर उपर नीचे उठने वाली मानसिक तरंगों से की गई है ​
जीव अपनी विस्मरणशीलता के कारण भौतिक अस्तित्व की तरंगों में उतरता रहता है अतएव श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने अपनी गीतावली में लिखा है हे मेरे मन! तुम माया के वश में होकर स्वीकृति तथा अस्वीकृति की तरंगों द्वारा दूर ले जाए जा रहे हो। तुम केवल सहज भाव से भगवान श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करो और श्री कृष्ण के चरण कमलों को ही अपना परम आश्रय मान लें तो हम माया कि इन सभी लहरों से बचे रह सकते ते हैं जो मानसिक तथा इंद्रिय गतिविधियों एवं स्वीकृति-अस्वीकृति के विक्षोभ के रूप में विभिन्न प्रकार से प्रकट होती हैं।

श्रीमद भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण उपदेश देते हैं; “तुम समस्त धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जाओ मैं तुम्हें संपूर्ण पाप कर्मों से मुक्त कर दूंगा। तुम डरो मत।” अतएव यदि हम कृष्णभावनामृत ग्रहण करके तथा हरे कृष्ण मंत्र के कीर्तन द्वारा सहज रूप में भगवान श्री कृष्ण के संपर्क में सदा रहकर उनके चरण कमलों में अपने आप को प्रस्तुत कर दें, तो हमें वैकुंठ लोक वापस जाने हेतु प्रबंध करने का अधिक कष्ट ना उठाना पड़े।

सवाल - जवाब 

Q- यहाँ पर अद्भुत कामों का सम्बंध भक्त के साथ किया गया है तो क्या भक्त वह है जो मंदिर नहीं बल्कि अपने क्षेत्र में अच्छा काम कर रहा हैं?
A- इस संदर्भ में कर्मयोग, भगवान श्री कृष्ण द्वारा क्षत्रिय अर्जुन को कर्म का उपदेश तथा बुद्धि पर बात की जा सकती है । चूँकि यहाँ अद्भुत शब्द आया है और एक बुद्धिमान व्यक्ति ही कर्म के माध्यम से अद्भुता प्रदर्शित कर सकता है इसलिए यह समझा जा सकता है कि कर्म प्रधान व्यक्ति ही वास्तविक भक्त होता है क्योंकि भगवान की उपस्थिति बुद्धि के रूप में उसमें स्थित रहती है। 
Q- मेरा सवाल ये है कि भगवान द्वारा व्यक्ति को बुद्धि प्रदान करना तथा इसके बाद व्यक्ति का भगवन के समीप जाना, यह कैसे संभव हो पाता है?
A- आपके सवाल का अनुभव पर आधारित और प्रामाणिक जवाब अभी उपलब्ध नहीं है, पर हमे आशा है कि निकट भविष्य में यह उपलब्ध होगा।
    ​* अपना प्रश्न यहाँ पर लिखकर पूछ सकते हैं ।
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