जगत् का अनुभव करने वाला कौन?
* ध्यान दें - इस वार्तालाप के लिए प्रश्न पूछने की सुविधा अंत में उपलब्ध है ।
श्री उद्धव ने कहा : हे भगवान ! इस भौतिक जगत के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह द्रष्टा रूपी आत्मा का अनुभव बने या द्र्श्य रूपी शरीर का अनुभव बने । एक और जहाँ आत्मा स्वाभाविक तौर पर पूर्ण ज्ञान से समन्वित होता है, वहीं दूसरी ओर भौतिक शरीर चेतन जीव सत्ता नहीं है । तो फिर इस भौतिक जगत का सम्बंध किस से है ?
चूँकि जीव शुद्ध आत्मा है, जो स्वभाव से पूर्ण ज्ञान तथा आनंद से पुरित है और चूँकि भौतिक शरीर एक जैव रासायनिक मशीन (यंत्र) है, जो ज्ञान या निजी चेतन से विहीन है, तो फिर इस भौतिक जगत के अज्ञान तथा चिंता का अनुभव कौन कर रहा होता है ? भौतिक जगत के चेतन के अनुभव से इंकार नहीं किया जा सकता, इसलिए उद्धव भगवान श्री कृष्ण से यह प्रश्न उस विधि को अच्छी तरह से समझने के लिए कर रहे हैं, जिससे मोह उत्पन्न होता है ।
चूँकि जीव शुद्ध आत्मा है, जो स्वभाव से पूर्ण ज्ञान तथा आनंद से पुरित है और चूँकि भौतिक शरीर एक जैव रासायनिक मशीन (यंत्र) है, जो ज्ञान या निजी चेतन से विहीन है, तो फिर इस भौतिक जगत के अज्ञान तथा चिंता का अनुभव कौन कर रहा होता है ? भौतिक जगत के चेतन के अनुभव से इंकार नहीं किया जा सकता, इसलिए उद्धव भगवान श्री कृष्ण से यह प्रश्न उस विधि को अच्छी तरह से समझने के लिए कर रहे हैं, जिससे मोह उत्पन्न होता है ।
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जिंदगी से जुड़े सारे सवालों, शंकाओं तथा इंसानों के जीवन के सारे पहलुओं का आध्यात्मिक ज्ञान यहाँ उपलब्ध है।
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आत्मा अव्यय, दिव्य, शुद्ध, आत्म प्रकाशित तथा किसी भौतिक वस्तु से कभी न ढका जाने वाला है । यह अग्नि के समान है । किंतु अचेतन भौतिक शरीर काष्ठ की तरह मंद है और अनभिज्ञ है । अटेव इस जगत में वह कौन है, जो वास्तव में भौतिक जीवन का अनुभव करता है ?
यहाँ पर अनावृतः तथा दारूवत शब्द महतपूर्ण हैं । अग्नि कभी अंधकार से आवृत नहीं हो सकती, क्योंकि अग्नि का स्वभाव ही प्रकाश फैलाना है । इसी तरह आत्मा स्वमज्योति: अर्थात स्वम प्रकाशित है । इस तरह आत्मा दिव्य है - इसे भौतिक जीवन रूपी अंधकार कभी भी आवृत नहीं कर सकता । दूसरी और, भौतिक शरीर जो की काष्ठ की तरह है, स्वभाव से मंद तथा प्रकाश रहित होता है । इसे अपने आपमें जीवन की कोई भिज्ञता नहीं होती । यदि आत्मा भौतिक जीवन से परे है और भौतिक शरीर को अपना चेत भी नहीं है, तो प्रश्न यह उठता है : भौतिक जगत का हमारा अनुभव वस्तुतः किस तरह होता है ?
पूर्ण पुरूषोत्म भगवान ने कहा : जब तक मूर्ख आत्मा भौतिक शरीर, इंद्रियों तथा प्राण के प्रति आकृष्ट रहता है, तब तक उसका भौतिक अस्तित्व विकसित होता रहता है, यद्यपि अंततोगत्वा यह अर्थहीन होता है । यहाँ पर सन्निकर्षण शब्द सूचित करता है कि शुद्ध आत्मा स्वेच्छा से अपने आप को यह सोचते हुए जोड़ लेता है कि यह सबसे फल प्रद व्यवस्था है । किंतु वास्तविकता तो यह है कि यह स्थिति अपार्थ अर्थात व्यर्थ होती है, जब तक मनुष्य अपने देहदारी पद को श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में नहीं लगाता उस समय मनुष्य का सम्बंध भगवान श्री कृष्ण से होता है, शरीर से नहीं, जो मनुष्य के उच्चतर उद्देश्य को पूरा करने का यंत्र बन जाता है ।
पूर्ण पुरूषोत्म भगवान ने कहा : जब तक मूर्ख आत्मा भौतिक शरीर, इंद्रियों तथा प्राण के प्रति आकृष्ट रहता है, तब तक उसका भौतिक अस्तित्व विकसित होता रहता है, यद्यपि अंततोगत्वा यह अर्थहीन होता है । यहाँ पर सन्निकर्षण शब्द सूचित करता है कि शुद्ध आत्मा स्वेच्छा से अपने आप को यह सोचते हुए जोड़ लेता है कि यह सबसे फल प्रद व्यवस्था है । किंतु वास्तविकता तो यह है कि यह स्थिति अपार्थ अर्थात व्यर्थ होती है, जब तक मनुष्य अपने देहदारी पद को श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में नहीं लगाता उस समय मनुष्य का सम्बंध भगवान श्री कृष्ण से होता है, शरीर से नहीं, जो मनुष्य के उच्चतर उद्देश्य को पूरा करने का यंत्र बन जाता है ।
वस्तुतः जीव भौतिक जगत से परे है । किंतु भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्य जताने की उसकी मनोवृति के कारण उसका भौतिक अस्तित्व मिटता नहीं और वह सभी प्रकार की हानियों से प्रभावित होता है, जिस तरह स्वप्न में घटित होता है । यद्यपि स्वप्न देखते समय मनुष्य को अनेक अवांछित वस्तुओं का अनुभव होता है, किंतु जग जाने पर वह स्वप्न के अनुभवों से तनिक भी भ्रमित नहीं होता । मुक्त आत्मा को भी इस जगत में रहते हुए भौतिक वस्तुओं का अवलोकन करना चाहिए । किंतु कृष्ण भावना अमृत के प्रति जागरूक होने के कारण वह समझता है कि इंद्रियगत सुख तथा दुःख स्वप्न की तरह अर्थ हीन होते हैं । इस तरह मुक्त आत्मा माया से कभी मोहित नहीं होता ।
शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, लालसा के साथ साथ जन्म तथा मृत्यु मिथ्या अहंकार के अनुभव है, शुद्ध आत्मा के नहीं ।
मिथ्या अहंकार सूक्ष्म भौतिक मन तथा स्थूल भौतिक शरीर के साथ शुद्ध आत्मा की भ्रामक पहचान है । ऐसी भ्रामक पहचान के फलस्वरूप बद्धात्मा खोई वस्तुओं के लिए शोक, प्राप्त हुई वस्तुओं के लिए हर्ष, अशुभ वस्तुओं पर भय, अपनी इच्छा की विफलता पर क्रोध, और इन्द्रियतृप्ति के लिए लोभ अनुभव करता है । इसलिए ऐसे झूठे आकर्षणों तथा विकर्षणों से मोहग्रस्त बद्धजीव को अन्य भौतिक शरीर स्वीकारने पड़ते हैं, जिसका अर्थ है उसे बारंबार जन्म तथा मृत्यु से होकर गुज़रना पड़ता है । जो स्वरूप सिद्ध व्यक्ति है वह जनता है कि ऐसी सारी संसारी भावनाओं का शुद्ध आत्मा से कोई सरोकार नहीं होता, क्योंकि शुद्ध आत्मा की स्वाभाविक मनोवृति श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में अपने आप को लगाने की होती है ।
सवाल - जवाब
Q- जैसा की ऊपर वार्तालाप में जिक्र किया गया है कि मृत्यु भी अनुभव का एक प्रकार है तो इसे कौन अनुभव करता है?
A- हालाँकि इसका सटीक उत्तर शायद ये न हो पर अगर प्रश्न पर गौर किया जाते तो पता लगता है कि फिर तो वास्तव में सारे अनुभव शरीर नहीं बल्कि कोई और ही कर रहा है और वो कोई और ही मृत्यु का भी अनुभव करने में सक्षम है।
Q-अगर मृत्यु का अनुभव आत्मा करती है तो यह मिथ्या अनुभव कैसे हुआ?
A- हम ऐसे कह सकते हैं कि आत्मा के लेवल पर किया जाने वाले सारे अनुभव सत्य होते हैं जबकि आत्मा से निचे या भ्रमित आत्मा के साथ किये जाने वाले अनुभव मिथ्या कहलाते हैं।
अनुभव की सत्यता जानने के लिए आवयश्क सामग्री
इन्द्रियतृप्ति का अनुभव मिथ्या है
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भक्तों द्वारा अपने कार्यों में तज़गी तथा नवीनता का अनुभव किया जाना
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कुशल चिंतक द्वारा श्री भगवान की उपस्थिति का अनुभव किया जाना
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