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जीवन दो स्खलनों का प्रतिफल नहीं

जीवन दो स्खलनों का प्रतिफल नहीं

हे राजन! जिस तरह वायु काष्ठ के दो टुकड़ों के बीच घर्षण को तेज़ करती है और अग्नि उत्पन्न कर देती है, ठीक उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में पूर्णतया ध्यानमग्न कश्यप मुनि ने अपने वीर्य को अदिति की कोख में स्थानांतरित कर दिया ​

जब वायु से क्षुब्ध होकर लकड़ी के दो टुकड़े एक दूसरे से रगड़ खाते हैं तो जंगल में आग लग जाती है। किंतु वास्तव में वह अग्नि ना तो लकड़ी की होती है न वायु की; यह सदा दोनों से भिन्न होती है। इसी प्रकार यहाँ पर यह समझना चाहिए कि कश्यप मुनि तथा आदिति का संयोग सामान्य मानवों के सम्भोग जैसा ना था। सम्भोग में मानवीय स्खलनों से भगवान का कुछ भी लेना देना नही होता। वे ऐसे संसारी संयोग से सर्वथा परे रहते हैं।

​“
मैं समस्त जीवों के प्रति समभाव रखता हूँ।” तो भी भक्तों की रक्षा करने तथा उत्पात मचाने वाले असुरों का वध करने के लिए श्री भगवान ने आदिति की कुक्षि में प्रवेश किया। अतएव यह भगवान की दिव्य लीला है।इसका ग़लत अर्थ नही लगाना चाहिए। किसी को यह नही सोचना चाहिए कि श्री भगवान उसी तरह से आदिति के पुत्र बने जिस तरह स्त्री पुरुष के संभोग से एक सामान्य बालक उत्पन्न होता है।
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आजकल के मत मातंतर के युग में यहाँ पर जीवन की उत्पत्ति के विषय में बताना उपयुक्त होगा। जीव की जीवनी शक्ति -आत्मा-मानव के वीर्य तथा रज से भिन्न होता है। यद्दपी बद्ध आत्मा को पुरुष तथा स्त्री की प्रजनन कोशिकाओं से कुछ भी लेना देना नही होता वह अपने क्रम के अनुसार उचित स्थिति में रख दिया जाता है। इस तरह जीवन मात्र रज वीर्य का प्रतिफल नही, अपितु सारे भौतिक तत्वों से स्वतंत्र होता है। जैसा कि श्री मद भगवद गीता में बताया गया है। जीव किसी भौतिक फल पर आश्रित नही होता। जीव को ना तो अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है न ही किसी तेज़ हथियार से काटा जा सकता है न जल से भिगोया जा सकता है ना ही हवा से सुखाया जा सकता है। वह भौतिक तत्वों से पूर्णतया स्वतंत्र होता है।

किंतु किसी श्रेस्ठ व्यवस्था द्वारा इन भौतिक तत्वों में धर दिया जाता है। वह सदा ही भौतिक सम्पर्क से प्रथक रहता है, किंतु भौतिक दशा प्राप्त होने के कारण उसे भौतिक प्रकृति के बंधनों को भोगना पड़ता है। “इसी तरह जीव भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ जीवनयापन करता है।यह भौतिक प्रकृति की संगति के कारण होता है। इस तरह विभिन्न योनियों में उसे अच्छे-बुरे से पाला पड़ता है।”  यद्दपी जीव भौतिक तत्वों से प्रथक होता है, किंतु उसे भौतिक अवस्था में रख दिया जाता है और इस तरह उसे भौतिक क्रिया-प्रतिक्रिया के फल भोगने पड़ते होते हैं।
सवाल जवाब
Q. ​सामान्य जन के विश्वास में भगवान की सत्ता पर भरोषा इसी बात पर कायम है कि जीवन की मतलब बच्चे का जन्म भगवान की दें है किन्तु जैसा की आज देखा जा
​सकता है कि यह जीवन डॉक्टर के द्वारा टेस्ट टूब बेबी की मदद से उत्पन्न किया जा रहा है तो क्या ऐसे में जीवन को लेकर भगवान के होने पर संदेह नहीं होना चाहिए?
A. ​ब्रह्माण्ड की अनंत तथा प्रतिपल घटने वाली शक्तिशाली घटनाओं को ध्यान में रखते हुए सिर्फ बच्चे पैदा होने की बात पर भगवान के अस्तित्व पर सन्देश कहाँ तक ठीक है यह कहा नहीं जा सकता फिर भी जीवन के सम्बन्ध में डॉक्टर्स एवं वैज्ञानिकों की अच्छी उपलब्धि है। जैसा की आपने बताया संदेह! संदेह आना अच्छी बुद्धि का लक्षण होता है और बुद्धि खुद भगवान की अपरा शक्ति में से एक है फिर भी आपके फैक्ट्स के अनुसार टेस्ट टूब से बेबी के जन्म  घटना को जीवन मान लेने पर हम सत्य तक नहीं पहुंच सकते और सत्य यह है कि वीर्य को एक एक जगह से दूसरी जगह पर पहुंचा देना तुलनात्मक रूप से उतना महत्पूर्ण नहीं है जितना की नौ महीने तक उसका सही सलामत बने रहना, परिपक्क होने के लिए उचित स्थिति मिलना, सही दशा बनाना, पालन पोषण होना, स्वरुप विकसित होना आदि और यही बातें सामान्य जन के विश्वास को मजबूत करती है कि कोई तो है जिसने कोख के अंदर ऐसी दिव्य वैज्ञानिक व्यवस्था की है जिससे की जीवन की उत्पत्ति संभव हो सके। 

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