सिद्ध आत्माओं का ऐश्वर्य
सर्व प्रथम उन्होंने (साध्वी सती) अपेक्षित रीति से आसान जमाया और फिर प्राणवायु को ऊपर खिंचकर नाभि के निकट संतुलित अवस्था में स्थापित कर दिया। तब प्राणवायु को उत्थापित करके, बुद्धि पूर्वक उसे वे ह्रदय में ले गयीं और फिर धीरे धीरे श्वाँस मार्ग से होते हुए क्रमशः दोनों भौहों के बीच ले आयीं।
योगिक क्रिया शरीर में विभिन्न स्थानों पर घूमती हुई वायु को नियंत्रित करना है - ये स्थान षट्चक्र अर्थात वायु के परिभ्रमण के छह वर्तुलाकार पथ कहलाते हैं । वायु को उदर से नाभि, नाभि से ह्रदय, ह्रदय से कंठ, कंठ से दोनों भौहों के बीच में और अंत में भौहों के मध्य से मस्तिष्क के शीर्ष भाग में ले जया जाता है। योग अभ्यास की यही क्रिया है। वास्तविक योग अभ्यास के अभ्यास के पूर्व मनुष्यों को आसनों का अभ्यास करना होता है। क्योंकि इससे श्वाँस की क्रियाओं में सहायता मिलती है और ऊपर तथा नीचे की और जाने वाली वायु का समन्वय हो सकता है। योग की सर्वोच्चय सिद्ध अवस्था प्राप्त करने हेतु इस महान तकनीक का अभ्यास करना होता है।
योगिक क्रिया शरीर में विभिन्न स्थानों पर घूमती हुई वायु को नियंत्रित करना है - ये स्थान षट्चक्र अर्थात वायु के परिभ्रमण के छह वर्तुलाकार पथ कहलाते हैं । वायु को उदर से नाभि, नाभि से ह्रदय, ह्रदय से कंठ, कंठ से दोनों भौहों के बीच में और अंत में भौहों के मध्य से मस्तिष्क के शीर्ष भाग में ले जया जाता है। योग अभ्यास की यही क्रिया है। वास्तविक योग अभ्यास के अभ्यास के पूर्व मनुष्यों को आसनों का अभ्यास करना होता है। क्योंकि इससे श्वाँस की क्रियाओं में सहायता मिलती है और ऊपर तथा नीचे की और जाने वाली वायु का समन्वय हो सकता है। योग की सर्वोच्चय सिद्ध अवस्था प्राप्त करने हेतु इस महान तकनीक का अभ्यास करना होता है।
केशव श्रुति में योगक्रिया का वर्णन मिलता है जिसमें बताया गया है कि प्राण शक्ति को किस प्रकार इच्छानुसार नियंत्रित किया जा सकता है और किस प्रकार एक शरीर से दूसरे शरीर या एक स्थान से दूसरे स्थान में लाया जा सकता है । योग अभ्यास शरीर को स्वस्थ रखने हेतु नही होता।आध्यात्मिक अनुभूति की कोई भी क्रिया स्वतः ही शरीर को ठीक रखती है, क्योंकि यह आत्मा है जिससे शरीर सदा स्वस्थ रहता है।जैसे ही आत्मा शरीर को त्याग देती है शरीर शीर्ण होने लगता है। कोई भी आध्यात्मिक क्रिया बाह्य प्रयास के बिना ही शरीर को स्वस्थ रखती है।
योग की वास्तविक सिद्धि तो आत्मा को उच्च पद पर पहुँचाना है अथवा आत्मा को भुआतिक बंधन से मुक्ति दिलाना है। कुछ योगी आत्मा को उच्चतर लोकों तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं जहाँ का जीवन स्तर इस ग्रह से भिन्न है, और भौतिक सुविधाएँ, जीवन काल तथा आत्म साक्षात्कार की अन्य सुविधाएँ अधिक है। कुछ योगी आत्मा को वैकुण्ठ लोक तक ले जाने का प्रयास करते हैं। भक्तियोग से तोआत्मा सीधे वैकुण्ठ लोक जाती है जहाँ जीवन आनंद तथा ज्ञान से नित्य पूर्ण रहता है। फलतः भक्तियोग को समस्त योग पद्दतियों में श्रेष्ठ माना जाता है।
योग की वास्तविक सिद्धि तो आत्मा को उच्च पद पर पहुँचाना है अथवा आत्मा को भुआतिक बंधन से मुक्ति दिलाना है। कुछ योगी आत्मा को उच्चतर लोकों तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं जहाँ का जीवन स्तर इस ग्रह से भिन्न है, और भौतिक सुविधाएँ, जीवन काल तथा आत्म साक्षात्कार की अन्य सुविधाएँ अधिक है। कुछ योगी आत्मा को वैकुण्ठ लोक तक ले जाने का प्रयास करते हैं। भक्तियोग से तोआत्मा सीधे वैकुण्ठ लोक जाती है जहाँ जीवन आनंद तथा ज्ञान से नित्य पूर्ण रहता है। फलतः भक्तियोग को समस्त योग पद्दतियों में श्रेष्ठ माना जाता है।
इस प्रकार महर्षियों तथा संतों द्वारा आराध्य तथा शिव की गोद में जिस शरीर को अत्यंत आदर तथा प्रेम के साथ बिठाया गया था, अपने पिता की प्रति रोष के कारण साध्वी सती ने अपने उस शरीरि का परित्याग करने हेतु अपने शरीर के अंदर अग्निमय वायु का ध्यान करना प्रारंभ कर दिया।
शिव को यहाँ पर समस्त महात्माओं में श्रेष्ठ बताया गया है। यद्दपी राजा दक्ष ने साध्वी सती के शरीर को उत्पन्न किया था, किंतु शिव साध्वी सती को अपनी गोद में बैठा कर विभूषित किया करते थे। इसे आदर का बड़ा प्रतीक माना जाता है। इस प्रकार साध्वी सती का शरीर सामान्य न था तो भी साध्वी सती ने उसका परित्याग करने का निश्चय किया क्योंकि राजा दक्ष से सम्बंधित होने के कारण वह दुःख का कारण बना हुआ था।
साध्वी सती द्वारा स्थापित इस उदाहरण का अनुकरण किया जाना चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसे व्यक्तियों की संगति करते समय अत्यंत सावधान रहे, जो उच्च अधिकारियों के प्रति अवज्ञा करते हैं। अतः वैदिक साहित्य में शिक्षा दी गयीं है कि मनुष्य नास्तिकों तथा अभक्तों की संगति से दूर रहें और भक्तों की संगति करने का प्रयत्न करें, क्योंकि भक्तों की संगति से वह आत्म साक्षात्कार के पद तक ऊपर उठ सके।
जीवन →
जिंदगी से जुड़े सारे सवालों, शंकाओं तथा इंसानों के जीवन के सारे पहलुओं का आध्यात्मिक ज्ञान यहाँ उपलब्ध है।
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साध्वी सती ने अपना सारा ध्यान अपने पति जगदगुरु शिव के पवित्र चरण कमलों पर केंद्रित कर दिया। इस प्रकार वे समस्त पापों से शुद्द हो गयीं। उन्होंने अग्निमय तत्वों के ध्यान द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि में अपने शरीर का परित्याग कर दिया। साध्वी सती ने तदक्षण अपने पति शिव के चरण कमलों का ध्यान किया, जो भौतिक जगत का संचालन करने वाले तीन देवताओं में से एक हैं। उन्हें चरण कमलों का ध्यान धरने से ही इतना आनंद मिला कि वे अपने शरीर के सारे सम्बंध भूल गयीं। इस उदाहरण से हम भक्त के उस आनंद का अनुमान लगा सकते हैं जो वह अपने मन को भगवान श्री विष्णु या भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों में ध्यान केंद्रित करके प्राप्त करता है।
जब साध्वी सती ने कोपवश अपना शरीर भस्म कर दिया, तो समूचे ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया कि सर्वाधिक पूज्य देवता शिव की पत्नी सती ने इस प्रकार अपना शरीर क्यों त्याग दिया। ब्रह्मांड के विभिन्न ग्रहों के देवताओं के समाज में कोलाहल मच गया, क्योंकि साध्वी सती राजाओं में श्रेष्ठ राजा दक्ष की कन्या तथा देवताओं में श्रेष्ठ शिव की पत्नी थीं। वे इतनी क्रुद्ध क्यों हुई की उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया? चूँकि वे एक महापुरुष की पुत्री और महात्मा की पत्नी थी अतः उन्हें किसी प्रकार का अभाव ना था किंतु तो भी उन्होंने असंतुष्ट हो कर शरीर छोड़ दिया।
इसलिए श्री मद भागवद गीता में बताया गया है कि मनुष्य को वास्तविक संतोष प्राप्त करना चाहिए, किंतु आत्मा-शरीर, मन तथा आत्मा ये सभी तभी संतुष्ट होते हैं जब परम सत्य के प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। यदि कोई दिव्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रति ऐसा अटूट प्रेम उत्पन्न करले, तो उसे पूर्ण संतोष प्राप्त हो सकता है।
जब साध्वी सती ने कोपवश अपना शरीर भस्म कर दिया, तो समूचे ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया कि सर्वाधिक पूज्य देवता शिव की पत्नी सती ने इस प्रकार अपना शरीर क्यों त्याग दिया। ब्रह्मांड के विभिन्न ग्रहों के देवताओं के समाज में कोलाहल मच गया, क्योंकि साध्वी सती राजाओं में श्रेष्ठ राजा दक्ष की कन्या तथा देवताओं में श्रेष्ठ शिव की पत्नी थीं। वे इतनी क्रुद्ध क्यों हुई की उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया? चूँकि वे एक महापुरुष की पुत्री और महात्मा की पत्नी थी अतः उन्हें किसी प्रकार का अभाव ना था किंतु तो भी उन्होंने असंतुष्ट हो कर शरीर छोड़ दिया।
इसलिए श्री मद भागवद गीता में बताया गया है कि मनुष्य को वास्तविक संतोष प्राप्त करना चाहिए, किंतु आत्मा-शरीर, मन तथा आत्मा ये सभी तभी संतुष्ट होते हैं जब परम सत्य के प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। यदि कोई दिव्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रति ऐसा अटूट प्रेम उत्पन्न करले, तो उसे पूर्ण संतोष प्राप्त हो सकता है।
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