भगवान अनिरुद्ध मन के रूप में प्रसिद्ध
महत् तत्व से भौतिक अहंकार उत्पन्न होता है, जो श्री भगवान की निजी शक्ति से उद्भूत है। भौतिक अहंकार में मुख्य रूप से तीन प्रकार की क्रिया शक्तियाँ होती है - सत्त्व, रज तथा तम । इन्ही तीन प्रकार के भौतिक अहंकार से मन, ज्ञानेंद्रियाँ, कर्मेंद्रियाँ तथा स्थूल तत्व उत्पन्न हुए ।
प्रारम्भ में शुद्ध चेतना या कृष्ण भावना की शुद्ध अवस्था से पहला कल्मष उत्पन्न हुआ। यह मिथ्या अहंकार या देहात्म बोध शरीर की आत्मा के रूप में पहचान कहलाया। जीवात्मा स्वाभाविक स्थिति में कृष्ण चेतना की अवस्था में रहता है, किंतु उसे थोड़ी सी छूट (स्वाधीनता) प्राप्त रहती है, जिससे उसे भगवान श्री कृष्ण को भूलने की छूट प्राप्त होती है ।
प्रारम्भ में शुद्ध कृष्ण चेतना रहती है; किंतु इस अत्यल्प स्वतंत्रता के दुरुपयोग से श्री कृष्ण को भूलने की सम्भावना बनी रहती है । वास्तविक जीवन में ऐसा दिखाई पड़ता है और ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमे कृष्ण भावना अमृत में कर्म करते हुए भी कोई सहसा बदल जाता है ।
प्रारम्भ में शुद्ध चेतना या कृष्ण भावना की शुद्ध अवस्था से पहला कल्मष उत्पन्न हुआ। यह मिथ्या अहंकार या देहात्म बोध शरीर की आत्मा के रूप में पहचान कहलाया। जीवात्मा स्वाभाविक स्थिति में कृष्ण चेतना की अवस्था में रहता है, किंतु उसे थोड़ी सी छूट (स्वाधीनता) प्राप्त रहती है, जिससे उसे भगवान श्री कृष्ण को भूलने की छूट प्राप्त होती है ।
प्रारम्भ में शुद्ध कृष्ण चेतना रहती है; किंतु इस अत्यल्प स्वतंत्रता के दुरुपयोग से श्री कृष्ण को भूलने की सम्भावना बनी रहती है । वास्तविक जीवन में ऐसा दिखाई पड़ता है और ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमे कृष्ण भावना अमृत में कर्म करते हुए भी कोई सहसा बदल जाता है ।
इसलिए उपनिषदों का कथन है कि आत्म साक्षात्कार का मार्ग उस्तरे की तेज धार के समान है। यह उदाहरण अत्यंत सटीक है । तेज उस्तरे से दाड़ी अच्छी बनती है ; किंतु थोड़ा भी ध्यान इधर उधर हुआ कि गाल कट जाता है ।
मनुष्य को ना केवल शुद्ध कृष्ण चेतना तक पहुँचना है, अपितु उसे अत्यंत सतर्क भी रहना है। तनिक भी असावधानी से पतन हो सकता है । इस पतन का कारण मिथ्या अहंकार होता है। शुद्ध चेतना की दशा से मिथ्या अहंकार का जन्म स्वाधीनता के दुरुपयोग से होता है। हम यह तर्क नहीं कर सकते कि शुद्ध चेतना से किस प्रकार मिथ्या अहंकार का उदय होता है।
वास्तविकता तो यह है कि ऐसा होने की सदेव सम्भावना बनी रहती है अतः मनुष्य को सदेव सतर्क रहना होता है। मिथ्या अहंकार उन सब कार्यों का मूलभूत सिध्यांत है, जो भौतिक प्रकृति के गुणों के अंतर्गत सम्पन्न किए जाते हैं । ज्योंही मनुष्य शुद्ध कृष्ण चेतना से विचलित होता है कि भौतिक कार्यों में वह उलझता जाता है । भौतिकवाद का बंधन भौतिक मन है और इस भौतिक मन से इंद्रियों तथा भौतिक अवयव प्रकट होते हैं ।
मनुष्य को ना केवल शुद्ध कृष्ण चेतना तक पहुँचना है, अपितु उसे अत्यंत सतर्क भी रहना है। तनिक भी असावधानी से पतन हो सकता है । इस पतन का कारण मिथ्या अहंकार होता है। शुद्ध चेतना की दशा से मिथ्या अहंकार का जन्म स्वाधीनता के दुरुपयोग से होता है। हम यह तर्क नहीं कर सकते कि शुद्ध चेतना से किस प्रकार मिथ्या अहंकार का उदय होता है।
वास्तविकता तो यह है कि ऐसा होने की सदेव सम्भावना बनी रहती है अतः मनुष्य को सदेव सतर्क रहना होता है। मिथ्या अहंकार उन सब कार्यों का मूलभूत सिध्यांत है, जो भौतिक प्रकृति के गुणों के अंतर्गत सम्पन्न किए जाते हैं । ज्योंही मनुष्य शुद्ध कृष्ण चेतना से विचलित होता है कि भौतिक कार्यों में वह उलझता जाता है । भौतिकवाद का बंधन भौतिक मन है और इस भौतिक मन से इंद्रियों तथा भौतिक अवयव प्रकट होते हैं ।
प्रारम्भ में शुद्ध चेतना या कृष्ण भावना की शुद्ध अवस्था से पहला कल्मष उत्पन्न हुआ। यह मिथ्या अहंकार या देहात्म बोध शरीर की आत्मा के रूप में पहचान कहलाया। जीवात्मा स्वाभाविक स्थिति में कृष्ण चेतना की अवस्था में रहता है, किंतु उसे थोड़ी सी छूट (स्वाधीनता) प्राप्त रहती है, जिससे उसे भगवान श्री कृष्ण को भूलने की छूट प्राप्त होती है ।
प्रारम्भ में शुद्ध कृष्ण चेतना रहती है; किंतु इस अत्यल्प स्वतंत्रता के दुरुपयोग से श्री कृष्ण को भूलने की सम्भावना बनी रहती है । वास्तविक जीवन में ऐसा दिखाई पड़ता है और ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमे कृष्ण भावना अमृत में कर्म करते हुए भी कोई सहसा बदल जाता
स्थूल तत्वों का स्त्रोत, इंद्रियाँ तथा मन - ये ही तीन प्रकार के अहंकार उनके समान है, क्योंकि अहंकार ही उनका कारण है। ये श्री संकर्षण के नाम से जाने जाते हैं, जो कि एक हज़ार शिरों वाले साक्षात भगवान अनन्त हैं।
यह अहंकार कर्ता, करण (साधन) तथा कार्य (प्रभाव) के लक्षणों वाला होता है। सतो, रजो तथा तमोगुणों के द्वारा यह जिस प्रकार प्रभावित होता है, उसी के अनुसार यह शांत, क्रियावान या मंद लक्षण वाला माना जाता है।
मिथ्या अहंकार भौतिक भौतिक व्यापारों के अधिशतहत देवताओं में रूपांतरित हो जाता है। करण (साधन) के रूप में मिथ्या अहंकार विभिन्न इंद्रियों तथा इंद्रियों के अंगों के रूप में प्रदर्शित होता है और देवताओं तथा इंद्रियों के संयोग से भौतिक वस्तुएँ उत्पन्न होती है। इस भौतिक जगत में हम अनेक वस्तुएँ उत्पन्न कर रहे हैं, जिसे सभ्यता की उन्नति कही जाती है, किंतु वास्तव में सभ्यता की उन्नति मिथ्या अहंकार का प्राकट्य है। मिथ्या अहंकार से ही समस्त भौतिक वस्तुएँ सुखोपयोग की सामग्रियों के रूप में उत्पन्न होती हैं। मनुष्यों को इन सामग्रियों की कृत्रिम आवश्यकताओं को कम करना होता है। एक महान आचार्य श्री नरोत्मदास ठाकुर ने शोक प्रकट किया है कि जब मनुष्य श्री वासुदेव की शुद्ध चेतना या कृष्ण चेतना से विपथ होता है तो वह भौतिक कर्मों में फँस जाता है। उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द इस प्रकार है - “मैं क्षणिक भौतिक आनंद उठाना चाहता था, इसलिए मैंने शुद्ध चेतना की अवस्था का परित्याग के दिया, इसलिए में कर्म फल के जाल में फँस गया हूँ”।
सत्त्व के विकार से दूसरा विकार आता है । जिससे मन उत्पन्न होता है, जिसके संकल्पों तथा विकल्पों से इच्छा का उदय होता है ।
जीवात्मा का मन इंद्रियों के सर्वोपरि अधिशतहत श्री अनिरुद्ध के नाम से प्रसिद्ध है । उनका नील श्याम रूप शरीर शरद कालीन कमल के समान है। योगी जन उन्हें शने शेन प्राप्त करते हैं।
प्रारम्भ में शुद्ध कृष्ण चेतना रहती है; किंतु इस अत्यल्प स्वतंत्रता के दुरुपयोग से श्री कृष्ण को भूलने की सम्भावना बनी रहती है । वास्तविक जीवन में ऐसा दिखाई पड़ता है और ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनमे कृष्ण भावना अमृत में कर्म करते हुए भी कोई सहसा बदल जाता
स्थूल तत्वों का स्त्रोत, इंद्रियाँ तथा मन - ये ही तीन प्रकार के अहंकार उनके समान है, क्योंकि अहंकार ही उनका कारण है। ये श्री संकर्षण के नाम से जाने जाते हैं, जो कि एक हज़ार शिरों वाले साक्षात भगवान अनन्त हैं।
यह अहंकार कर्ता, करण (साधन) तथा कार्य (प्रभाव) के लक्षणों वाला होता है। सतो, रजो तथा तमोगुणों के द्वारा यह जिस प्रकार प्रभावित होता है, उसी के अनुसार यह शांत, क्रियावान या मंद लक्षण वाला माना जाता है।
मिथ्या अहंकार भौतिक भौतिक व्यापारों के अधिशतहत देवताओं में रूपांतरित हो जाता है। करण (साधन) के रूप में मिथ्या अहंकार विभिन्न इंद्रियों तथा इंद्रियों के अंगों के रूप में प्रदर्शित होता है और देवताओं तथा इंद्रियों के संयोग से भौतिक वस्तुएँ उत्पन्न होती है। इस भौतिक जगत में हम अनेक वस्तुएँ उत्पन्न कर रहे हैं, जिसे सभ्यता की उन्नति कही जाती है, किंतु वास्तव में सभ्यता की उन्नति मिथ्या अहंकार का प्राकट्य है। मिथ्या अहंकार से ही समस्त भौतिक वस्तुएँ सुखोपयोग की सामग्रियों के रूप में उत्पन्न होती हैं। मनुष्यों को इन सामग्रियों की कृत्रिम आवश्यकताओं को कम करना होता है। एक महान आचार्य श्री नरोत्मदास ठाकुर ने शोक प्रकट किया है कि जब मनुष्य श्री वासुदेव की शुद्ध चेतना या कृष्ण चेतना से विपथ होता है तो वह भौतिक कर्मों में फँस जाता है। उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द इस प्रकार है - “मैं क्षणिक भौतिक आनंद उठाना चाहता था, इसलिए मैंने शुद्ध चेतना की अवस्था का परित्याग के दिया, इसलिए में कर्म फल के जाल में फँस गया हूँ”।
सत्त्व के विकार से दूसरा विकार आता है । जिससे मन उत्पन्न होता है, जिसके संकल्पों तथा विकल्पों से इच्छा का उदय होता है ।
जीवात्मा का मन इंद्रियों के सर्वोपरि अधिशतहत श्री अनिरुद्ध के नाम से प्रसिद्ध है । उनका नील श्याम रूप शरीर शरद कालीन कमल के समान है। योगी जन उन्हें शने शेन प्राप्त करते हैं।
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