बुद्धि के लक्षण
हे सती ! मिथ्या अहंकार का रजोगुण में विकार होने से बुद्धि का जन्म होता है। बुद्धि के कार्य हैं दिखाई पड़ने पर पदार्थों की प्रकृति के निर्धारण में सहायता करना और इंद्रियों की सहायता करना।
बुद्धि वह विवेक शक्ति है, जिसमें किसी पदार्थ को जाना जाता है और इंद्रियों को चयन करने में सहायता मिलती है। इसलिए बुद्धि को इंद्रियों का स्वामी माना जाता है। किंतु बुद्धि को पूर्णता तब मिलती है, जब मनुष्य कृष्ण भक्ति का कार्य कलापों में स्थिर हो जाता है। बुद्धि के समुचित प्रयोग से मनुष्य की चेतना का विस्तार होता है और चेतना का चरम विस्तार कृष्ण भक्ति है।
बुद्धि वह विवेक शक्ति है, जिसमें किसी पदार्थ को जाना जाता है और इंद्रियों को चयन करने में सहायता मिलती है। इसलिए बुद्धि को इंद्रियों का स्वामी माना जाता है। किंतु बुद्धि को पूर्णता तब मिलती है, जब मनुष्य कृष्ण भक्ति का कार्य कलापों में स्थिर हो जाता है। बुद्धि के समुचित प्रयोग से मनुष्य की चेतना का विस्तार होता है और चेतना का चरम विस्तार कृष्ण भक्ति है।
संदेह, विपरीत ज्ञान, यथार्थ ज्ञान, स्मृति तथा निंद्रा, ये अपने भिन्न भिन्न कार्यों से निश्चित किए जाते हैं और ये ही बुद्धि के स्पष्ट लक्षण हैं।
बुद्धि के प्रमुख कार्यों में से संदेह एक है। किसी बात को आँख मूँद कर विश्वास कर लेना बुद्धि का लक्षण नहीं है। अतः संशय शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। बुद्धि का अनुशीलन करने हेतु मनुष्य को प्रारम्भ में संदेह युक्त होना चाहिए। किंतु जब उचित साधन से सूचना प्राप्त हो रही हो तो संदेह करना अनुकूल नहीं होता। श्री मद भगवद गीता में श्री भगवान कहते हैं कि अधिकारी के शब्दों में संदेह करना विनाश का कारण होता है।
जैसा कि पतंजलि योग पद्धति में बताया गया है - बुद्धि से मनुष्य वस्तुओं को उसी रूप में समझ सकता है, जैसे वे हैं। बुद्धि से ही मनुष्य जान सकता है कि वह शरीर है या नहीं । यह निश्चित करने हेतु की मनुष्य की पहचान आध्यात्मिक है या भौतिक उसका प्रारम्भ संदेह करने से होता है।
बुद्धि के प्रमुख कार्यों में से संदेह एक है। किसी बात को आँख मूँद कर विश्वास कर लेना बुद्धि का लक्षण नहीं है। अतः संशय शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। बुद्धि का अनुशीलन करने हेतु मनुष्य को प्रारम्भ में संदेह युक्त होना चाहिए। किंतु जब उचित साधन से सूचना प्राप्त हो रही हो तो संदेह करना अनुकूल नहीं होता। श्री मद भगवद गीता में श्री भगवान कहते हैं कि अधिकारी के शब्दों में संदेह करना विनाश का कारण होता है।
जैसा कि पतंजलि योग पद्धति में बताया गया है - बुद्धि से मनुष्य वस्तुओं को उसी रूप में समझ सकता है, जैसे वे हैं। बुद्धि से ही मनुष्य जान सकता है कि वह शरीर है या नहीं । यह निश्चित करने हेतु की मनुष्य की पहचान आध्यात्मिक है या भौतिक उसका प्रारम्भ संदेह करने से होता है।
जब मनुष्य अपनी वास्तविक स्थिति का विश्लेषण कर पाने में सक्षम होता है, तो झूठे देहात्म बोध का पता चलता है। यह विपर्यास है। जब झूठी पहचान का पता चल जाता है, तब वास्तविक पहचान जानी जा सकती है। वास्तविक ज्ञान को यहाँ निश्चय अथवा सिद्ध प्रायोगिक ज्ञान कहा गया है। यह प्रायोगिक ज्ञान तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब झूठा ज्ञान समझ में आ चुका हो। व्यावहारिक या शुद्ध ज्ञान से मनुष्य यह जान जान सकता है कि वह शरीर नहीं अपितु आत्मा है।
स्मृति का अर्थ “स्मृतिशक्ति” है और स्वाप का अर्थ “निंद्रा” है। बुद्धि को क्रियाशील रखने हेतु निंद्रा भी ज़रूरी है। यदि निंद्रा ना हो तो मस्तिष्क ठीक से कार्य नहीं कर सकता। श्री मद्भगवद गीता में यह विशेष रूप से उल्लेख हुआ है कि जो लोग भोजन, नींद तथा शरीर की अन्य आवश्यकताओं को समुचित मात्रा में नियमित कर लेते हैं वे योग क्रिया में अत्यंत सफल होते हैं । ये बुद्धि का विश्लेषणात्मक अध्ययन के कुछ पक्ष हैं, जिनका वर्णन पतंजलि योग पद्धति तथा भगवान श्री कपिल के सांख्यदर्शन में श्री मद भागवतम में हुआ है।
स्मृति का अर्थ “स्मृतिशक्ति” है और स्वाप का अर्थ “निंद्रा” है। बुद्धि को क्रियाशील रखने हेतु निंद्रा भी ज़रूरी है। यदि निंद्रा ना हो तो मस्तिष्क ठीक से कार्य नहीं कर सकता। श्री मद्भगवद गीता में यह विशेष रूप से उल्लेख हुआ है कि जो लोग भोजन, नींद तथा शरीर की अन्य आवश्यकताओं को समुचित मात्रा में नियमित कर लेते हैं वे योग क्रिया में अत्यंत सफल होते हैं । ये बुद्धि का विश्लेषणात्मक अध्ययन के कुछ पक्ष हैं, जिनका वर्णन पतंजलि योग पद्धति तथा भगवान श्री कपिल के सांख्यदर्शन में श्री मद भागवतम में हुआ है।
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