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​काल पच्चीसवाँ तत्व है

काल पच्चीसवाँ तत्व है
इन सब को सुयोग्य ब्रह्म माना जाता है । इन सब को मिलाने वाला तत्व काल है, जिसे पच्चीसवें तत्व के रूप में गिना जाता है ।  वैदिक मत के अनुसार ब्रह्म से परे कोई अस्तित्व नहीं है - विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि जो कुछ हम देखते हैं वह प्रत्येक वस्तु परम सत्य, ब्रह्म के विस्तार की शक्ति है । जब ब्रह्म को सतो, रजो तथा तमों के साथ मिला दिया जाता है तो भौतिक विस्तार होता है जिसे कभी कभी सगुण ब्रह्म कहते हैं और जिसमें ये पच्चीसों तत्व रहते हैं । 

निगुण ब्रह्म में कोई भौतिक कल्मष नहीं रहता अथवा आध्यात्मिक जगत (वैकुण्ठ) में सतो, रजो तथा तमों ये तीनों गुण नहीं रहते । जहां निगुण ब्रह्म विध्यमान रहता है, वहाँ शुद्ध सत्त्व पाया जाता है । सांख्य दर्शन के अनुसार सगुण ब्रह्म में पच्चीस तत्व शामिल हैं जिनमे काल (भूत, वर्तमान तथा भविष्य) भी शामिल है ।

पूर्ण पुरूषोत्म भगवान का प्रभाव काल तत्व में अनुभव किया जाता है क्योंकि यह भौतिक प्रकृति के सम्पर्क में आने वाले मोहित आत्मा के अहंकार के कारण मृत्यु का भय उत्पन्न करता है । जीव को मृत्यु का भय उसमें देहात्म बोध के कारण अहंकार की उत्पत्ति से होता है। हर कोई मृत्यु से भयभीत रहता है । वास्तव में मृत्यु नहीं होती है । किंतु देहात्म बोध के कारण मृत्युभय उत्पन्न होता है । श्री मद भागवतम में कहा गया है - भौतिक पदार्थ जो आत्मा से परे है । पदार्थ आत्मा का गौण प्राकट्य है क्योंकि पदार्थ आत्मा से उत्पन्न होता है । 
जिस प्रकार यहाँ पर वर्णित भौतिक तत्व परमेश्वर या परम आत्मा द्वारा उत्पन्न है, उसी प्रकार शरीर भी आत्मा की उपज है । इसलिए शरीर को द्वितीय कहा गया है । जब मनुष्य इस द्वितीय तत्व या आत्मा के द्वितीय प्रदर्शन में तल्लीन रहता है, तो वह मृत्यु से भयभीत रहता है । किंतु जब उसे यह विश्वास हो जाता है कि वह अपना शरीर नहीं है तो मृत्यु से डरने कंक प्रश्न ही नहीं उठता; क्योंकि आत्मा कभी मरता नहीं।

यदि आत्मा भक्तिमय सेवा के आध्यात्मिक कर्म में लग जाता है तो वह जन्म तथा मृत्यु से पूर्णतया मुक्त हो जाता है। उसकी अगली स्थिति भौतिक देह से पूर्ण आध्यात्मिक मुक्ति की होती है । मृत्यु का भय काल का प्रभाव है जो पूर्ण पुरुसोत्तम परमेश्वर के प्रभाव का घोतक है । दूसरे शब्दों में काल विध्वंसक है । 
जिस वस्तु का सृजन होता है, उसका विनाश तथा विलय भी होता है और यह काल का कार्य है । काल श्री भगवान का प्रतिनिधित्व करता है और यह हमें इस बात का भी स्मरण कराता है कि हम ईश्वर की शरण ग्रहण करें । ईश्वर प्रत्येक जीव से काल के रूप में बातें करते हैं । श्री भगवान श्री मद भागवतम में कहते हैं कि यदि कोई उनकी शरण में आ जाता है, तो फिर उसके लिए जन्म तथा मृत्यु कोई समस्या नही रह जाती । अतः हमें काल को अपने समक्ष खड़े हुए पूर्ण पुरूषोत्म भगवान के रूप में मानना चाहिए ।

हे मनु पुत्री ! हे माता ! जैसा कि मैंने बतलाया है, काल श्री भगवान है, जिनसे उदासीन (समभाव) अवम अप्रकट प्रकृति के गतिमान होने से सृष्टि प्रारम्भ होती है । पूर्ण पुरूषोत्म भगवान अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हुए अपने आप को भीतर से परमात्मा के रूप में और बाहर से काल के रूप में विभिन्न तत्वों का समन्वय करते हैं।

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