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मानव जीवन का उद्देश्य

​मानव जीवन का उद्देश्य

​भगवान ऋषभ देव ने अपने पुत्रों से कहा - हे पुत्रों! संसार के समस्त देह धारियों में जिसे मनुष्य की देह प्राप्त हुई है, उसे इन्द्रिय तृप्ति के लिए दिन रात कठोर परिश्रम नही करना चाहिए; क्योंकि ऐसा तो अपशिष्ट खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं। मनुष्य को चाहिए की भक्ति का दिव्यपद प्राप्त करने हेतु वह अपने आप को तपस्या में लगाए। ऐसा करने से उसका ह्रदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है तो उसे शाश्वत जीवन का आनंद मिलता है जो भौतिक आनंद से परे है और अनंत तक टिकने वाला है।
इस श्लोक में भगवान ऋषभ देव ने अपने पुत्रों को मनुष्य जीवन की महत्ता बताते हैं। देह - भाक शब्द से “भौतिक देह धारण करने वाले ” का बोध होता है किंतु जिस जीव आत्मा को भौतिक देह प्राप्त होती है उसे पशुओं से भिन्न आचरण करना चाहिए। कूकर तथा सूकर जैसे प्राणी मल खाकर इन्द्रिय तृप्ति कर लेते हैं। दिन भर अथक परिश्रम करने के उपरांत मनुष्य रात्रि के समय खा पी कर  सम्भोग और शयन द्वारा आनंद उठाना चाहते हैं। किंतु इसके साथ ही उन्हें अपनी रक्षा भी करनी होती है। 

किंतु यह कोई मानव सभ्यता नही है मनुष्य जीवन का अर्थ है आध्यात्मिक जीवन की उन्नति हेतु स्वेच्छा से कष्ट सहना।नि: संदेह पशुओं तथा वृक्षों को भी अपने विगत दुष्कर्मों के कारण कष्ट भोगने पड़ते हैं। किंतु मनुष्य को दिव्य जीवन की प्राप्ति के लिए तपस्या के रूप में कष्टों को स्वेच्छा से अंगीकार करना चाहिए। दिव्य जीवन प्राप्त करने के अनन्तर उसे शास्वत आनंद प्राप्त हो सकता है। मुख्य बात तो यह है कि प्रत्येक जीव आत्मा सुखोपयोग चाहता है, किंतु जब तक वह इस देह में बंदी है उसे विभिन्न प्रकार के कष्ट झेलने होते हैं। मनुष्य में उच्चतर बुद्धि पाई जाती है। हमें चाहिए कि हम गुरुजनों के उपदेश के अनुसार काम करें, जिससे शास्वत सुख प्राप्त हो और हम श्री भगवान के धाम लौट सकें।
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इस श्लोक में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि सरकार तथा स्वाभाविक संरक्षक पिता को चाहिए कि वह अपने अधिनस्तों को शिक्षित करके कृष्ण भावना अमृत तक पहुँचाए। कृष्ण भावना अमृत के बिना प्रत्येक जीव जन्म तथा मृत्यु के चक्कर में सदा के लिए उलझा रहता है। उन्हें इस बंधन के मुक्त कराने के लिए तथा प्रसन्न तथा आनंदित बनाने के लिए भक्तियोग की शिक्षा दी जानी चाहिए। विमुढ़ सभ्यता ही अपने नागरिकों को भक्तियोग तक पहुँचाने वाली शिक्षा से वंचित रखती है।

कृष्ण भक्ति के बिना मनुष्य कूकर-सूकर के तुल्य है। भगवान ऋषभदेव के उपदेश वर्तमान समय में अत्यंत अनिवार्य हैं। मनुष्यों को इन्द्रिय तृप्ति के लिए कठोर परिश्रम करने की शिक्षा दी जाती है और जीवन में उनका कोई महद् उद्देश्य नही रहता । मनुष्य जीविका अर्जन के लिए भोर होते ही अपने घर से निकलता है और ठसाठस भारी हुई लोकल रेलगाड़ी पकड़ता है। उसे अपने कार्यालय तक पहुँचने में एक या दो घंटे खड़ा रहना पड़ता है। वह फिर बस पकड़ के अपने कार्यालय पहुँचता है। करायलय में वह नौ से पाँच बजे तक मेहनत से काम करता है  और घर लौटने में फिर से २-३ घंटे लग जाते हैं। भोजन उपरांत सम्भोग करके निंदर में लीन हो जाता है। इन समस्त कष्टों का एकमात्र लाभ थोड़ा सा मैथुन सुख है। भगवान ऋषभदेव स्पस्थ कहते हैं कि मनुष्य जीवन इस प्रकार जीने के लिए नही मिला क्योंकि ऐसा भोग तो कूकर-सूकर भी करते हैं।

​वास्तव में कूकर-सूकर को मैथुन के लिए इतना कठिन परिश्रम भी नही करना पड़ता। मनुष्य को चाहिए कि  वह कूकर-सूकर का अनुकरण ना करके भिन्न प्रकार का जीवन जिए। अतः वहाँ इसके विकल्प का उल्लेख किया गया है। मनुष्य जीवन तपस्या तथा आत्मसंयम के लिए है। तपस्या के द्वारा वह भव बंधन से छूट सकता है। कृष्ण भावना अमृत में रह कर मनुष्य को शाश्वत सुख की सुनिश्चितता मिल जाती है। भक्ति योग के द्वारा यह जीवन निर्मल हो जाता है। जीव आत्मा जन्म जन्मांतर तक सुख की अन्वेषणा करता है। किंतु अकेले भक्तियोग से वह अपनी सभी समस्याओं का हल पा सकता है। फिर वह अविलंब भगवद धाम जाने का भागी हो जाता है। 
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