भक्तों द्वारा अपने कार्यों में ताजगी तथा नवीनता का अनुभव किया जाना
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सदैव भक्तिकार्यों में संलग्न रहकर भक्तजन अपने आपको तरोताज़ा तथा अपने कार्यों में सदैव नवीन (नया नया) अनुभव करते हैं। भक्त के ह्रदय के भीतर सर्व ज्ञाता परमात्मा प्रत्येक वस्तु को अधिकारिक नया बनाते रहते हैं। परम सत्य के पक्षधर (ब्रह्मवादी ) इसे ब्रह्मभूत कहते हैं। ऐसी ब्रह्मभूत अर्थात मुक्त अवस्था में मनुष्य कभी मोह ग्रस्त नहीं होता। न ही वह शोक करता है, न व्यर्थ ही हर्षित होता है। वह ब्रह्मभूत अवस्था के कारण होता है।
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जिंदगी से जुड़े सारे सवालों, शंकाओं तथा इंसानों के जीवन के सारे पहलुओं का आध्यात्मिक ज्ञान यहाँ उपलब्ध है।
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जो मुझ में निरंतर श्रद्धा रखते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी पूजा करते हैं उन्हें में बुद्धि प्रदान करता हूँ, जिससे वह मेरे पास आ सकते हैं ।
जैसा कि कहा जा चुका है, जो भक्ति के शुभ कार्य (कुशल कर्माना ) में लगे होते हैं वे परमात्मा द्वारा निर्देशित होते हैं, जिसे इस श्लोक में ज्ञ कहा गया है अर्थात वे जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य सभी जानते है। परमात्मा केवल एकनिष्ठ शुद्ध भक्तों को ही आदेश देते हैं कि वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तक पहुँचने में किस प्रकार प्रगति कर सकते हैं। इसके संदर्भ में श्रील जीव गोस्वामी कहते हैं कि परमेश्वर के पूर्ण विस्तार परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय में स्थित हैं किंतु भक्त के ह्रदय में वे स्वयं अपने आप को अधिकारिक नवीन रूप में प्रकट करते हैं। उनसे प्रेरणा ग्रहण करके भक्त इनकी भक्तिमय सेवा में और अधिक दिव्य आनंद का अनुभव करता है।
स्वप्न से जगने पर मनुष्य की स्मृति में स्वप्न की हल्की छाया बनी रह सकती हैं । इसी तरह श्री भगवान की भक्ति में लगने पर कभी कभी मनुष्य पापमय जीवन की हल्की छाया से क्षुब्ध हो सकता है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि श्री भगवान द्वारा उद्धव को दिए गये उपदेशों को सुनकर कृष्ण भावना अमृत में पुष्ट बने ।
इसलिए हे उद्धव ! तुम भौतिक इन्द्रियों से इन्द्रियतृप्ति भोगने का प्रयास मत करो । यह देखो कि किस तरह भौतिक द्वेत पर आधारित भ्रम मनुष्य को आत्म साक्षात्कार से रोकता है ।
हर वस्तु श्री भगवान की शक्ति तथा सम्पत्ति है और श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में प्रयुक्त होने के निमित्त हैं । भौतिक वस्तुओं को श्री कृष्ण से पृथक देखना और उन्हें अपने अधिकार में ले लेना और भोगने के निमित्त समझना वैकल्पिकम भ्रमम अर्थात भौतिक भ्रम कहलाता है । अपने भोग की वस्तु यथा भोजन, वस्त्र, आवास या वाहन का चुनाव करते समय मनुष्य उस प्राप्तव्य वस्तु के गुणों पर विचार करता है । फलस्वरूप भौतिक जीवन में मनुष्य निरंतर चिंतामग्न रहता है और अपने निजी आनंद के लिए सर्वोत्तम इन्द्रियतृप्ति प्राप्त करने का प्रयास करता है । किंतु यदि वह हर वस्तु को श्री भगवान की सम्पत्ति के रूप में देखता है, तो उसे लगेगा कि हर वस्तु श्री भगवान की प्रशंसा के लिए बनी है ।
उसे कोई निजी सत्ता नहीं रहेगी, क्यूँकि तब वह श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में लगे रहने में तुष्ट रहेगा । ऐसा सम्भव ही नहीं है कि श्री भगवान की सम्पत्ति दुरुपयोग करने के साथ साथ आत्म साक्षात्कार में भी प्रगति की सा सके ।
हर वस्तु श्री भगवान की शक्ति तथा सम्पत्ति है और श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में प्रयुक्त होने के निमित्त हैं । भौतिक वस्तुओं को श्री कृष्ण से पृथक देखना और उन्हें अपने अधिकार में ले लेना और भोगने के निमित्त समझना वैकल्पिकम भ्रमम अर्थात भौतिक भ्रम कहलाता है । अपने भोग की वस्तु यथा भोजन, वस्त्र, आवास या वाहन का चुनाव करते समय मनुष्य उस प्राप्तव्य वस्तु के गुणों पर विचार करता है । फलस्वरूप भौतिक जीवन में मनुष्य निरंतर चिंतामग्न रहता है और अपने निजी आनंद के लिए सर्वोत्तम इन्द्रियतृप्ति प्राप्त करने का प्रयास करता है । किंतु यदि वह हर वस्तु को श्री भगवान की सम्पत्ति के रूप में देखता है, तो उसे लगेगा कि हर वस्तु श्री भगवान की प्रशंसा के लिए बनी है ।
उसे कोई निजी सत्ता नहीं रहेगी, क्यूँकि तब वह श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में लगे रहने में तुष्ट रहेगा । ऐसा सम्भव ही नहीं है कि श्री भगवान की सम्पत्ति दुरुपयोग करने के साथ साथ आत्म साक्षात्कार में भी प्रगति की सा सके ।
सवाल - जवाब
Q- सभी वस्तुओं को भगवान के साथ जोड़ कर अनुभव करना क्यों जरुरी है?
A- पहली बात तो यह है कि भगवान के साथ प्रत्येक वस्तु को जोड़ने पर परम् सत्य के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है तथा दूसरी बात यह कि जब तक वास्तु की रचना का अंतिम स्त्रोत का आभास नहीं होता तब तक व्यक्ति को मिथ्या अनुभव होते रहते हैं इसलिए हर एक वस्तु को भगवन के साथ जोड़कर ग्रहण करना चाहिए।
अनुभव की सत्यता जानने के लिए आवयश्क सामग्री
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