जीवन की आवश्यकताएँ
* ध्यान दें - इस वार्तालाप के लिए प्रश्न पूछने की सुविधा अंत में उपलब्ध है ।
श्री भगवान द्वारा उत्पन्न प्रकृति पदार्थों का उपयोग सभी जीवों के शरीरों तथा आत्माओं का पालन हेतु किया जाना चाहिए । जीवन की आवश्यकताएँ 3 प्रकार की हैं - वे जो आकाश से (वर्षा से ) उत्पन्न हैं, वे जो पृथ्वी (खानों, समुद्रों या खेतों से) से उत्पन्न हैं तथा वे जो वायुमंडल से (जो अचानक तथा अनपेक्षित रूप से) उत्पन्न होती हैं।
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जिंदगी से जुड़े सारे सवालों, शंकाओं तथा इंसानों के जीवन के सारे पहलुओं का आध्यात्मिक ज्ञान यहाँ उपलब्ध है।
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“सभी जीवंत देह अन्न पर निर्भर हैं और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ करने से होती है और यज्ञ नियत कर्तव्यों को सम्पन्न करने से उत्पन्न होता है।”
हम विविध रूपों के जीवात्मा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के बच्चों की भाँति है, जैसा श्रीमद् भगवत गीता में श्री भगवान द्वारा पुष्टि की गयी है
“ हे कुंतिपुत्र ! यह समझ लो कि समस्त योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव बनाई जाती है और में उनका बीज दाता पिता हूँ।” भगवान श्री कृष्ण समस्त योनियों तथा रूप वाले जीवों के पिता हैं। जो बुद्धिमान है वह देख सकता है कि 8400000 योनियों में सभी जीव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अंश है और उनके पुत्र हैं । भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के अंदर प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की संपती है । अटेव हर वस्तु उनसे सम्बंधित है जैसा की श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं
“जो व्यक्ति किसी वस्तु को भगवान श्री कृष्ण से उनके सम्बंध को जाने बिना त्यागता है, उसका वैराग्य अपूर्ण कहा जाता है।” यदपी मायावादी दार्शनिक ये कह सकते हैं कि यह भौतिक सरसती मिथ्या है, किंतु वास्तव में यह मिथ्या नहीं है। यह वास्तविक है; किंतु यह विचार मिथ्या है कि प्रत्येक वस्तु मानव समाज की है। प्रत्येक वस्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की है क्योंकि वह उनके द्वारा उत्पन्न की गयी है। सभी जीव श्री भगवान के पुत्र, उनके शाश्वत अंशरूप होने के कारण अपने पिता की सम्पत्ति का उपयोग प्रकृतिक की व्यवस्था के अनुसार करने के अधिकारी हैं। जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा उनके लिए निर्धारित की गयी वस्तुओं से संतुष्ट रहना चाहिए। किसी को दूसरों के अधिकारों में या सम्पत्ति में अधिकरण नहीं करना चाहिए।
जब बहुत अन्न उत्पन्न होता है तो पशु तथा मनुष्य दोनों का ही पोषण बिना किसी कठनाई के हो जाता है। यह प्रकृति व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक प्रकृति के अधीन कर्म कर रहा है। केवल पृथ्वी ही सोचते हैं कि वे ईश्वर द्वारा उत्पन्न की गयी वस्तुओं में सुधार ला सकते हैं । ग्रहस्थों का ये विशेष दायित्व है कि वे देखें की मनुष्यों, समुदायों समाजों या राष्ट्रों के मध्य किसी प्रकार के संघर्ष के बिना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के नियमों का पालन हो रहा है कि नहीं। मानव समाज को ईश्वर के उपहारों का, विशेष रूप से उस अन्न का सदुपयोग करना चाहिए जो आकाश से होने वाली वर्षा के कारण उत्पन्न होता है। जैसा की श्री मद भगवत गीता में कहा गया कि ये वर्षा निरंतर हो इसके लिए मनुष्यों को यज्ञ करने चाहिए। पूर्व कल घी तथा अन्न की आहुति दल कर यज्ञ सम्पन्न किए जाते थे; किंतु इस युग में ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है क्योंकि मानव समाज के पाप कर्मों के कारण घी तथा अन्न का उत्पादन घट गया है। किंतु लोगों को चाहिए कि कृष्ण कृष्णभावनामृत को ग्रहण करें और हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करें जैसा की शास्त्रों द्वारा अनुमोदित है।
यदि विश्वभर के मनुष्य कृष्णभावनामृत आंदोलन को ग्रहण कर लें और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के दिव्य नाम तथा कीर्ति का कीर्तन करें तो वर्षा का अभाव नहीं रहेगा; फलस्वरूप अन्न, फल तथा फूल ठीक से उत्पन्न होंगे और जीवन की समस्त आवश्यकताएँ सरलता से पूरी हो सकेंगी। ग्रहस्थों को ऐसे प्रकृति उत्पादन करने की व्यवस्था का भार उठाना चाहिए। इसलिए कहा गया है कि बुद्धिमान मनुष्य को भगवंनाम के कीर्तन द्वारा कृष्णभावनामृत का प्रचार करना चाहिए और तब जीवन की समस्त आवश्यकताएँ स्वतः पूरी हो जाएँगी।
“ हे कुंतिपुत्र ! यह समझ लो कि समस्त योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव बनाई जाती है और में उनका बीज दाता पिता हूँ।” भगवान श्री कृष्ण समस्त योनियों तथा रूप वाले जीवों के पिता हैं। जो बुद्धिमान है वह देख सकता है कि 8400000 योनियों में सभी जीव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अंश है और उनके पुत्र हैं । भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों के अंदर प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की संपती है । अटेव हर वस्तु उनसे सम्बंधित है जैसा की श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं
“जो व्यक्ति किसी वस्तु को भगवान श्री कृष्ण से उनके सम्बंध को जाने बिना त्यागता है, उसका वैराग्य अपूर्ण कहा जाता है।” यदपी मायावादी दार्शनिक ये कह सकते हैं कि यह भौतिक सरसती मिथ्या है, किंतु वास्तव में यह मिथ्या नहीं है। यह वास्तविक है; किंतु यह विचार मिथ्या है कि प्रत्येक वस्तु मानव समाज की है। प्रत्येक वस्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की है क्योंकि वह उनके द्वारा उत्पन्न की गयी है। सभी जीव श्री भगवान के पुत्र, उनके शाश्वत अंशरूप होने के कारण अपने पिता की सम्पत्ति का उपयोग प्रकृतिक की व्यवस्था के अनुसार करने के अधिकारी हैं। जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा उनके लिए निर्धारित की गयी वस्तुओं से संतुष्ट रहना चाहिए। किसी को दूसरों के अधिकारों में या सम्पत्ति में अधिकरण नहीं करना चाहिए।
जब बहुत अन्न उत्पन्न होता है तो पशु तथा मनुष्य दोनों का ही पोषण बिना किसी कठनाई के हो जाता है। यह प्रकृति व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक प्रकृति के अधीन कर्म कर रहा है। केवल पृथ्वी ही सोचते हैं कि वे ईश्वर द्वारा उत्पन्न की गयी वस्तुओं में सुधार ला सकते हैं । ग्रहस्थों का ये विशेष दायित्व है कि वे देखें की मनुष्यों, समुदायों समाजों या राष्ट्रों के मध्य किसी प्रकार के संघर्ष के बिना पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के नियमों का पालन हो रहा है कि नहीं। मानव समाज को ईश्वर के उपहारों का, विशेष रूप से उस अन्न का सदुपयोग करना चाहिए जो आकाश से होने वाली वर्षा के कारण उत्पन्न होता है। जैसा की श्री मद भगवत गीता में कहा गया कि ये वर्षा निरंतर हो इसके लिए मनुष्यों को यज्ञ करने चाहिए। पूर्व कल घी तथा अन्न की आहुति दल कर यज्ञ सम्पन्न किए जाते थे; किंतु इस युग में ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है क्योंकि मानव समाज के पाप कर्मों के कारण घी तथा अन्न का उत्पादन घट गया है। किंतु लोगों को चाहिए कि कृष्ण कृष्णभावनामृत को ग्रहण करें और हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करें जैसा की शास्त्रों द्वारा अनुमोदित है।
यदि विश्वभर के मनुष्य कृष्णभावनामृत आंदोलन को ग्रहण कर लें और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के दिव्य नाम तथा कीर्ति का कीर्तन करें तो वर्षा का अभाव नहीं रहेगा; फलस्वरूप अन्न, फल तथा फूल ठीक से उत्पन्न होंगे और जीवन की समस्त आवश्यकताएँ सरलता से पूरी हो सकेंगी। ग्रहस्थों को ऐसे प्रकृति उत्पादन करने की व्यवस्था का भार उठाना चाहिए। इसलिए कहा गया है कि बुद्धिमान मनुष्य को भगवंनाम के कीर्तन द्वारा कृष्णभावनामृत का प्रचार करना चाहिए और तब जीवन की समस्त आवश्यकताएँ स्वतः पूरी हो जाएँगी।
सवाल - जवाब
Q- यहाँ पर अद्भुत कामों का सम्बंध भक्त के साथ किया गया है तो क्या भक्त वह है जो मंदिर नहीं बल्कि अपने क्षेत्र में अच्छा काम कर रहा हैं?
A- इस संदर्भ में कर्मयोग, भगवान श्री कृष्ण द्वारा क्षत्रिय अर्जुन को कर्म का उपदेश तथा बुद्धि पर बात की जा सकती है । चूँकि यहाँ अद्भुत शब्द आया है और एक बुद्धिमान व्यक्ति ही कर्म के माध्यम से अद्भुता प्रदर्शित कर सकता है इसलिए यह समझा जा सकता है कि कर्म प्रधान व्यक्ति ही वास्तविक भक्त होता है क्योंकि भगवान की उपस्थिति बुद्धि के रूप में उसमें स्थित रहती है।
Q- मेरा सवाल ये है कि भगवान द्वारा व्यक्ति को बुद्धि प्रदान करना तथा इसके बाद व्यक्ति का भगवन के समीप जाना, यह कैसे संभव हो पाता है?
A- आपके सवाल का अनुभव पर आधारित और प्रामाणिक जवाब अभी उपलब्ध नहीं है, पर हमे आशा है कि निकट भविष्य में यह उपलब्ध होगा।
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