चिंतन से ही भगवान श्री कृष्णा की प्राप्ति
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कहीं कहीं पर वैदिक साहित्य में ब्रह्मा को परम देव या इंद्र, चंद्र या वरुण जैसे देवों का स्वामी कहा गया है लेकिन श्री मद भागवतम से पुष्टि होती है कि ब्रह्मा भी अपनी शक्ति तथा ज्ञान के विषय में स्वतंत्र नही हैं। उन्हें ज्ञान की प्राप्ति उन परम पुरुष से वेदों के रूप में हुई जो प्रत्येक जीव के ह्रदय में निवास करने वाले हैं। वह परम पुरुष प्रत्येक वस्तु को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जानते हैं। ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव, जो परम पुरुष के अंश स्वरूप हैं भले ही अपने शरीरों या अपने बाह्य लक्षणों के बारे में प्रत्येक बात को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जान लें किंतु परम पुरुष अपने बाहरी तथा भीतरी लक्षणों के बारे में हर बात को जानते हैं।
जन्माद्यस्य शब्द यह बतलाता है कि समस्त उत्पत्ति, पालन या संहार के स्त्रोत वे परम चेतम पुरुष ही हैं। यहाँ तक की हम अपने वर्तमान अनुभव से भी जानते हैं कि जड़ पदार्थ से कुछ भी उत्पन्न नही होता लेकिन जड़ पदार्थ जीवंत अस्तित्व (जीव ) से उत्पन्न किया जा सकता है उदाहरणार्थ, जीव के संसर्ग से ही जड़ शरीर एक कार्य करने वाले यंत्र के रूप में विकसित होता है।
जन्माद्यस्य शब्द यह बतलाता है कि समस्त उत्पत्ति, पालन या संहार के स्त्रोत वे परम चेतम पुरुष ही हैं। यहाँ तक की हम अपने वर्तमान अनुभव से भी जानते हैं कि जड़ पदार्थ से कुछ भी उत्पन्न नही होता लेकिन जड़ पदार्थ जीवंत अस्तित्व (जीव ) से उत्पन्न किया जा सकता है उदाहरणार्थ, जीव के संसर्ग से ही जड़ शरीर एक कार्य करने वाले यंत्र के रूप में विकसित होता है।
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जिंदगी से जुड़े सारे सवालों, शंकाओं तथा इंसानों के जीवन के सारे पहलुओं का आध्यात्मिक ज्ञान यहाँ उपलब्ध है।
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“अल्पज्ञानी मनुष्य इस शारीरिक यंत्र (मशीन) को ही जीव मान लेते हैं जबकि तथ्य तो यह है कि जीवात्मा ही शारीरिक यंत्र का आधार है। जीवित स्फुल्लिंग के निकलते ही शारीरिक मशीन व्यर्थ हो जाती है।”
इसी प्रकार समस्त भौतिक शक्ति के मूल स्त्रोत परम पुरुष हैं। यह तथ्य सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में व्यक्त हुआ है और आधात्म विज्ञान के समस्त भाष्यकारों ने इस सत्य को स्वीकार किया है। यह जीवन शक्ति ब्रह्म कहलाती है और महान आचार्यों में से एक शंकार्याचार्य ने यह उपदेश दिया है की ब्रह्म तत्व (कारण) है, जबकि यह विराट जगत एक प्रवर्ग है। जीवन शक्ति ही समस्त शक्तियों की मूल स्त्रोत है और तार्किक रूप से श्री भगवान को ही परम पुरुष माना जाता है। अतएव वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य की हर बात को तथा भौतिक अवम आध्यात्मिक, अपनी दोनो ही सृष्टियों के कोने कोने को जानने वाले हैं ।
एक अपूर्ण जीव को इसका भी पता नही रहता कि अपने शरीर के अंदर क्या हो रहा है। वह भोजन तो करता है किंतु उसे यह नही पता होता कि भोजन किस प्रकार शक्ति में बदलता है या शरीर का किस प्रकार पोषण करता है। जब कोई पूर्ण होता है, तो वह घटने वाली प्रत्येक बात को जनता रहता है और चूँकि परम पुरुष सभी प्रकार से परिपूर्ण हैं, अतः यह बिलकुल स्वाभाविक है कि वे हर बात को विस्तार से जानते हैं। फलस्वरूप पूर्ण पुरुष को श्री मद भागवतम में वसुदेव के नाम से सम्बोधित किया गया है, जिसका अर्थ है : वे जो अपनी पूर्ण चेतना में तथा अपनी पूर्ण शक्ति से युक्त हो कर सर्वत्र रहते हैं। इन सब की विवेचना श्री मद भागवतम में स्पष्ट रूप से की गयी है और पाठक को इसका भली भाँति समालोचनापूर्वक अध्यय करने का पर्याप्त अवसर मिलता है।
एक अपूर्ण जीव को इसका भी पता नही रहता कि अपने शरीर के अंदर क्या हो रहा है। वह भोजन तो करता है किंतु उसे यह नही पता होता कि भोजन किस प्रकार शक्ति में बदलता है या शरीर का किस प्रकार पोषण करता है। जब कोई पूर्ण होता है, तो वह घटने वाली प्रत्येक बात को जनता रहता है और चूँकि परम पुरुष सभी प्रकार से परिपूर्ण हैं, अतः यह बिलकुल स्वाभाविक है कि वे हर बात को विस्तार से जानते हैं। फलस्वरूप पूर्ण पुरुष को श्री मद भागवतम में वसुदेव के नाम से सम्बोधित किया गया है, जिसका अर्थ है : वे जो अपनी पूर्ण चेतना में तथा अपनी पूर्ण शक्ति से युक्त हो कर सर्वत्र रहते हैं। इन सब की विवेचना श्री मद भागवतम में स्पष्ट रूप से की गयी है और पाठक को इसका भली भाँति समालोचनापूर्वक अध्यय करने का पर्याप्त अवसर मिलता है।
सवाल - जवाब
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