इन्द्रियतृप्ति का अनुभव मिथ्या है
* ध्यान दें - इस वार्तालाप के लिए प्रश्न पूछने की सुविधा अंत में उपलब्ध है ।
हे दाशारह ! आत्मा का भौतिक जीवन, इन्द्रियतृप्ति का उसका अनुभव वास्तव में उसी तरह झूठा होता है, जिस तरह क्षुब्ध जल में प्रतिबिम्बित वृक्षों का हिलना-डुलना या आँखों को चारों और घुमाने से पृथ्वी का घूमना या कल्पना अथवा स्वप्न का जगत होता है ।
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जिंदगी से जुड़े सारे सवालों, शंकाओं तथा इंसानों के जीवन के सारे पहलुओं का आध्यात्मिक ज्ञान यहाँ उपलब्ध है।
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जो व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति पर अपना ध्यान जमाए रखता है, उसके लिए भौतिक जीवन वास्तविक ना होते हुए भी उसी तरह हट नहीं पाता, जिस तरह स्वप्न के अरुचिकर अनुभव हटाए नहीं हटते ।
कोई यह आपत्ति कर सकता है कि जब भगवान श्री कृष्ण इस बात पर ज़ोर दे रहें है कि भौतिक जगत मिथ्या है, तो फिर कोई इसे रोकने के लिए प्रयास करे ? इसलिए श्री भगवान यहाँ बतलाते हैं कि भौतिक जीवन यद्यपि यथार्थ नहीं है किंतु जो इन्द्रियतृप्ति में लीन रहता है, उसके लिए वह हटपूर्वक चलता रहता है, जिस तरह निंद्रा में मग्न रहने वाले का भयानक स्वप्न चलता रहता है। अविद्यमान अर्थात “जिसका अस्तित्व नहीं है ” शब्द का अर्थ यह है कि भौतिक जीवन ऐसी मनो कल्पना पर आधारित होता है, जिसमें मनुष्य सोचता है कि, “मैं पुरुष हूँ ” “मैं डॉक्टर हूँ ” “मैं स्त्री हूँ” “मैं सीनेतर हूँ ”। “मैं झाड़ु लगाने वाला हूँ” इत्यादि ।
बद्ध आत्मा शरीर के साथ काल्पनिक पहचान के बल पर बड़े ही उत्साह के साथ कार्य करता जाता है । इस तरह यद्यपि आत्मा विद्यमान होता है तथा शरीर भी विद्यमान रहता है किंतु शरीर के साथ झूठी पहचान का अस्तित्व नहीं होता । मिथ्या विचार पर आधारित भौतिक जीवन का वस्तिक अस्तित्व नहीं होता ।
बद्ध आत्मा शरीर के साथ काल्पनिक पहचान के बल पर बड़े ही उत्साह के साथ कार्य करता जाता है । इस तरह यद्यपि आत्मा विद्यमान होता है तथा शरीर भी विद्यमान रहता है किंतु शरीर के साथ झूठी पहचान का अस्तित्व नहीं होता । मिथ्या विचार पर आधारित भौतिक जीवन का वस्तिक अस्तित्व नहीं होता ।
स्वप्न से जगने पर मनुष्य की स्मृति में स्वप्न की हल्की छाया बनी रह सकती हैं । इसी तरह श्री भगवान की भक्ति में लगने पर कभी कभी मनुष्य पापमय जीवन की हल्की छाया से क्षुब्ध हो सकता है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि श्री भगवान द्वारा उद्धव को दिए गये उपदेशों को सुनकर कृष्ण भावना अमृत में पुष्ट बने ।
इसलिए हे उद्धव ! तुम भौतिक इन्द्रियों से इन्द्रियतृप्ति भोगने का प्रयास मत करो । यह देखो कि किस तरह भौतिक द्वेत पर आधारित भ्रम मनुष्य को आत्म साक्षात्कार से रोकता है ।
हर वस्तु श्री भगवान की शक्ति तथा सम्पत्ति है और श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में प्रयुक्त होने के निमित्त हैं । भौतिक वस्तुओं को श्री कृष्ण से पृथक देखना और उन्हें अपने अधिकार में ले लेना और भोगने के निमित्त समझना वैकल्पिकम भ्रमम अर्थात भौतिक भ्रम कहलाता है । अपने भोग की वस्तु यथा भोजन, वस्त्र, आवास या वाहन का चुनाव करते समय मनुष्य उस प्राप्तव्य वस्तु के गुणों पर विचार करता है । फलस्वरूप भौतिक जीवन में मनुष्य निरंतर चिंतामग्न रहता है और अपने निजी आनंद के लिए सर्वोत्तम इन्द्रियतृप्ति प्राप्त करने का प्रयास करता है । किंतु यदि वह हर वस्तु को श्री भगवान की सम्पत्ति के रूप में देखता है, तो उसे लगेगा कि हर वस्तु श्री भगवान की प्रशंसा के लिए बनी है ।
उसे कोई निजी सत्ता नहीं रहेगी, क्यूँकि तब वह श्री भगवान की प्रेमाभक्ति मी लगे रहने में तुष्ट रहेगा । ऐसा सम्भव ही नहीं है कि श्री भगवान की सम्पत्ति दुरुपयोग करने के साथ साथ आत्म साक्षात्कार में भी प्रगति की सा सके ।
हर वस्तु श्री भगवान की शक्ति तथा सम्पत्ति है और श्री भगवान की प्रेमाभक्ति में प्रयुक्त होने के निमित्त हैं । भौतिक वस्तुओं को श्री कृष्ण से पृथक देखना और उन्हें अपने अधिकार में ले लेना और भोगने के निमित्त समझना वैकल्पिकम भ्रमम अर्थात भौतिक भ्रम कहलाता है । अपने भोग की वस्तु यथा भोजन, वस्त्र, आवास या वाहन का चुनाव करते समय मनुष्य उस प्राप्तव्य वस्तु के गुणों पर विचार करता है । फलस्वरूप भौतिक जीवन में मनुष्य निरंतर चिंतामग्न रहता है और अपने निजी आनंद के लिए सर्वोत्तम इन्द्रियतृप्ति प्राप्त करने का प्रयास करता है । किंतु यदि वह हर वस्तु को श्री भगवान की सम्पत्ति के रूप में देखता है, तो उसे लगेगा कि हर वस्तु श्री भगवान की प्रशंसा के लिए बनी है ।
उसे कोई निजी सत्ता नहीं रहेगी, क्यूँकि तब वह श्री भगवान की प्रेमाभक्ति मी लगे रहने में तुष्ट रहेगा । ऐसा सम्भव ही नहीं है कि श्री भगवान की सम्पत्ति दुरुपयोग करने के साथ साथ आत्म साक्षात्कार में भी प्रगति की सा सके ।
सवाल - जवाब
Q। क्या सत्य को भगवान से अलग करके देखा जा सकता है?
A। समझ या कहें कि बुद्धि कि दृष्टि से सत्य को भगवान से भिन्न समझा जा सकता है किंतु शायद अनुभव के तौर पर इनमे अर्थात सत्य और भगवान (या अन्य कोई भी टर्म) में कोई अंतर नही है।
Q। क्या सत्य का दूसरा पहलू असत्य या झूठ है?
A। इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए अन्य धारणाओं के दूसरे पहलुओं जैसे कि सही का ग़लत, वास्तविक का अवास्तविक, सच का झूठ तथा सत्य के दूसरे पहलू जिसे की मिथ्या के द्वारा समझा जाता है ; पर विचार किया जा सकता है ।
Q। सत्य क्या है?
A। सत्य एक अद्वितीय व पूर्ण स्रोत है । एक ऐसा स्त्रोत जिस पर सृष्टि में उपस्थित सारे अस्तित्व अपनी मौजूदगी को बनाए रखने के लिए निर्भर होते हैं किंतु यह स्त्रोत किसी पर निर्भर नही होता । सत्य अपनेआप में पूर्णरूपेण स्वतंत्रत स्त्रोत है ।
अनुभव की सत्यता जानने के लिए आवयश्क सामग्री
भौतिक सृष्टि के तत्वों की गणना
भौतिक तत्वों तत्वों की गणना के बारे में दर्शनिकों में मतभेद →
प्रकृति के तीन गुण →
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उद्धव द्वारा शरीर तथा आत्मा में अंतर के विषय में जिज्ञासा →
क्या यह जगत सत्य है? →
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अपनी पूर्व पहचान की विस्मरति ही मृत्यु है →
शरीर में निरंतर रूपांतर होता रहता है →
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